सोमवार, 6 मार्च 2017

अनुप्रिया के रेखांकन : बहती नदी की व्यथा

बिहार की कोसी नदी ​धार बदल -बदल बहती है.​पर्वतीय नदी की तरह खिलंदड़ ! सरपट बहती किनारों पर बसे गाँवों के मंडईयों , सूखते तालाबों को लीलती पसर जाती है.अनुप्रिया का बचपन इन्हीं गाँवों के इर्दगिर्द बीता है. घनेरे आम्रकुंज , बाँसवाड़ी, कस्बाई बाज़ार , ऊँघती गायें , और छप्पर पर टोकाटाकी करते कौव्वे से बतियाती अनुप्रिया के मानस में ज्यों स्मृतिलेख की तरह अचेतन दृश्य बिम्ब की तरह ' फ़्रिजशॉट ' होते गये.एक क़स्बा छूटना और पुनः स्त्री की परिधि में आगमन भले ही सामाजिक जीवन का शुभारम्भ हो , मगर मायके की स्मृतियाँ कहाँ छूटती हैं...!
कैशोर्य मन में शमित ऐसे सहस्त्रों दृश्यबिम्ब एकांत में कचोटते रहे . फिर अनुप्रिया को यह एकांत बहाने लगा , गृहस्थी को सँवारने सँभालने के बाद एक साधन ढूँढ लिया ...कोरा काग़ज़ और स्केच पेन .मन में बसी उथलपुथल करती आकृतियाँ उन काग़जों पर उतरने लगी .​तन्मय एकांत ,सरपट भागती दौड़ती रेखाओं का भँवर और श्यामवर्ण का मोह अद्भुत आकृतियाँ गढ़ने लगी . एक कस्बेनुमा शहर सुपौल की किशोरी देश के महानगर में चकाचौंध से बिना डरे , कुण्ठा में भींगे और इन रेखाओं के नेपथ्य में जादुई सम्मोहन की सहज भाषा दुहराये एक स्त्री के सहज मन को बौद्धिक बहस से अलग प्रकृति से जोड़ती रही हर रेखांकन में .​
यथार्थ बिम्बलोक कड़वाहट देता है, कलात्मक सृजन की पहली शर्त है कि कला सुखवादी हो. अनुप्रिया के रेखांकन में मूल ध्येय यह दृष्टिगत है.नर्तन करती रेखाओं में लोच है , श्लील वर्ण्यविषय बोझ नहीं लगती है और न भटकती हैं .प्रेक्षक का उन्मादित भाव से स्त्री को ग्रहण नहीं करता , बल्कि संपूर्ण रूप में स्त्री का साक्षात्कार करता है. चिड़ियों से बतियाती औरत , उगते सूर्य को निहारती हुई स्त्री , बोझों को उठाई औरत ....सचमुच एक औरत किस्से में बदल-बदल अवलोकक के समक्ष प्रस्तुत होती हैं.
भले ही इन सहज रेखांकन में भाऊ सामर्थ , कमलाक्ष शैने और अन्य परिवर्ती स्थापित रेखाचित्रकारों की भाषा जैसी संपुटित वाणी न मिले , किन्तु अनुप्रिया के निर्दोषता के सँग भटकाव नहीं देंती .कोसी नदी की तरह रेखाओं के भँवर में उभरी रेखाओं में कोई दुहराव नहीं है.सतत बहती रेखाओं के सँग एकवर्णी श्याम रँग वह सब व्यक्त करती हैं , जो कस्बे से छूटी औरत कंक्रीट के जँगल, जगमगाते मॉल, इतराती पड़ोस की औरतें और गुजरती घुर्राती बसों में ' अपनापन ' ढूँढती है.वास्तव में , पिछले दो दशकों में महानगरीय जीवनशैली की विद्रूपता के विरुद्ध इन सहज रेखांकन के माध्यम से गँवई स्वर की तीव्रता प्रदान की गयी है.
अवसाद से घिरी जीवनशैली में इन आकृतियों के अवलोकन से विस्मृत होती आसपास की उस दुनिया का पुनर्प्रक्षेपण है ,जिन्हें अब हम मन के किसी कोने में खोजते हैं. अनुप्रिया के रेखांकन में सामाजिक जीवन का दायित्वबोध है , इस रूप में रेखांकन को सर्जनात्मक तुष्टि मानकर आलोच्य दायित्व से मुक्त होना कठिन होगा.वास्तव में,इन सहज रेखाओं के वृत्त परिधि में उन लक्ष इच्छाओं के स्वर मुखरित हैं , जो संस्कृति के इस संकट वेला में उपेक्षित और अदृश्य भाव से पीछा कर रहे हैं निरंतर .रेखांकन का ध्येय स्पष्ट है, मूक ग्राम्य जीवन को पुनर्स्थापित कर रिक्त होते तालाबों में मंडराती गौरैयों को सहेजना , उगते-डूबते सूरज की लालिमा निहारने के लिये अवसर पाना और छाया खोजती औरतें से बतियाना ही अनुप्रिया के रेखांकन सन्देश नहीं देते --बल्कि मशीनों द्वारा रची गयी साजिशों का भेद खोलना भी है.अगर कभी बालकनी से झाँकती कोई औरत फिर कभी मिले , तो अनुप्रिया की आकृतियों में गढ़ी कोई स्त्री फुदक कर सामने आ जायेगी और यूँ कभी पूछे," यह शहर कैसा लगा, मेरे कस्बे जैसा या गुर्राती मेट्रो गुजरती में लदे-फदे लोग...!"
कोसी यूँ ही बहती रहेगी और हर साल बाढ़ आती रहेगी...!अनुप्रिया के रेखांकन भी हमारी स्मृतियों को कुरेदती रहेंगी .