शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

अभिव्यक्ति की आज़ादी और मर्यादित लेखन

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरकरार रखने वाला एक ऐतिहासिक फैसला दिया है। अपने इस फैसले के जरिए न्यायालय ने साइबर कानून की धारा 66 (ए) निरस्त कर दी है, जो सोशल मीडिया पर कथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी भी शख्स को गिरफ्तार करने की असीमित शक्ति देती थी। न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की पीठ ने फैसला देते समय कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है। यह धारा संविधान में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करती है। इस तरह कानून की छात्रा श्रेया सिंघल की याचिका पर न्यायालय ने समाज और लोकतंत्र को एक बेहतर दिशा देने वाला फैसला दिया है। इसके लिए अभिव्यक्ति की पैरोकारी करने वालों को दोनों का शुक्रगुजार होना चाहिए।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सन् 2000 में अस्तित्व में आया था तो करीब आठ साल बाद 2008 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-एक की सरकार ने उसमें संशोधन किया। धारा 66 (ए) उसी संशोधन की देन थी। इसमें तीन साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान था। उस समय चकित करने वाली बात यह थी कि संसद ने संशोधन के मसविदे को बिना बहस-मुबाहिसा के पारित कर दिया था। अधिनियम के अनुसार इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक व आहत करने वाली सामग्री डालना अपराध था। इसकी आड़ में सरकार ने सैकड़ों वेबसाइटों को ब्लैक कर दिया। आने वाले समय में इसका परिणाम यह हुआ कि किसी भी बात को आहत पहुंचाने वाली बात कहकर पुलिस में शिकायत की जाने लगी। नेताओं अथवा रसूखदार लोगों की शिकायतें पहुंचते ही पुलिस अटेंशन की मुद्रा में आकर बिना किसी देरी के कथित आरोपियों को गिरफ्तार करने लगी। अनेक राज्यों में प्रशासन के खिलाफ टिप्पणी करने वालों को सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। इनमें लेखक, चित्रकार, शिक्षक, व्यापारी से लेकर नाबालिग छात्र तक शामिल हैं।
इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में भी इंटरनेट सेवियों की संख्या कम ही है। इसके बावजूद वह 20 करोड़ से अधिक बताए जाते हैं। उनके लिए सोशल मीडिया संवाद का एक बड़ा जरिया है। ऐसे में अगर उनकी हर गतिविधि पर कानून की तलवार लटकती रहे तो अभिव्यक्ति की आजादी का क्या होगा? यह सवाल पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया की दुनिया में तैर रहा था। धारा 66 (ए) के तहत कायम किए जाने वाले अधिकांश मामले दरअसल नेताओं को खुश करने के लिए होते थे। इसकी बानगी कुछ घटनाओं पर नजर डालने से मिलती है। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के निधन पर शिवसेना के बन्द पर सवाल उठाते हुए पोस्ट लिखने वाली छात्रा शाहीन ढाडा व उसे लाइक करने वाली उसकी मित्र रीनू श्रीनिवासन को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी तरह केरल में प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी करने वाले राजीश कुमार को पकड़ने में देर नहीं लगी तो गोवा में मोदी के खिलाफ कमेन्ट लिखने वाले देवू छोडांकर को पुलिस ने सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने के आरोप में धर दबोचा।
सबसे अधिक चकित करने वाली घटना उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में घटी, जहां 11वीं के एक छात्र को प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आजम खान के बारे में एक पोस्ट साझा करने के आरोप में पकड़ा गया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने प्रदेश की पुलिस से पूछा है कि किन हालात में इस छात्र को गिरफ्तार करने की नौबत आन पड़ी? सोशल मीडिया पर अपनी राय जाहिर करने वालों में से पकड़े गए लोगों की सूची लम्बी है। नेताओं के इशारे पर नाचने वाली पुलिस इन गिरफ्तारियों के जरिए वाहवाही लूटती है और उनकी नजर में अपने नम्बर बढ़ाती है। इन घटनाओं में कुछ मामले ऐसे भी थे जो सोशल साइट के जरिए दूसरे को बदनाम कर रहे थे। लेकिन पुलिस उन तत्वों को चिन्हित करने के बजाय धारा 66 (ए) की आड़ लेकर आनन-फानन में गिरफ्तारियां करती रही। यह एक तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का उल्लंघन है, जो देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी देता है।
वैसे उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर सोशल मीडिया में कुछ ज्यादा ही उत्साह देखने को मिला। काफी लोग धारा 66 (ए) निरस्त करने को व्यवस्था बदलाव के तौर पर पेश करते नजर आए। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। फैसले का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखने की छूट मिल गई है और ऐसा करने पर किसी तरह की गिरफ्तारी नहीं होगी। ऐसा समझना हवा में पुल खड़ा करने के सिवाय कुछ नहीं है। धारा 66 (ए) को निरस्त करने के बाद अनेक धाराएं ऐसी हैं जिनसे सोशल मीडिया के अधिकतर सेवी अन्जान हैं या वह जानना नहीं चाहते हैं। उनकी जानकारी के लिए बताना उचित होगा कि मानहानि, भारतीय दंड संहिता की धारा 499, सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने पर लगने वाली धारा 153 (ए), धार्मिक भावनाएं आहत करने पर लगने वाली धारा 295 (ए), सीआरपीसी 95 (ए) एवं अश्लीलता संबंधी धारा 292 पहले की तरह अपनी जगह कायम है।
संसदीय विशेषाधिकार और अदालत की अवमानना के प्रावधान भी खत्म नहीं किए गए हैं। सबसे अहम बात यह कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आठ तरह की पाबंदी लगी है। एक तरह से संविधान में जहां भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिष्ठापित है वहीं उसके साथ-साथ युक्ति-युक्त निर्बंधन (Reasonable Restriction) भी उल्लिखित किए गए हैं। यानि एक हाथ से स्वतंत्रता दी गई है वहीं दूसरे हाथ से ले ली गई है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ही सोशल मीडिया पर विचार व्यक्त करना होगा।
न्यायालय ने फैसला देते समय सूचना प्रौद्योगिकी के अन्य प्रावधानों जैसे धारा 69 (ए) व 79 को यह कहते हुए निरस्त नहीं किया कि ये धाराएं कुछ पाबंदियों के साथ लागू रह सकती हैं। धारा 69 (ए) किसी कम्प्यूटर संसाधन के जरिए किसी सूचना तक सार्वजनिक पहुंच को रोकने के लिए निर्देश जारी करने की शक्ति देती है वहीं धारा 79 में कुछ मामलों में मध्यवर्ती की जवाबदेही से छूट का प्रावधान करती है। इसलिए उत्साह में बहकने के बजाय समझदारी से काम करने की आवश्यकता है।
अगर ऐसा नहीं करेंगे तो अनेक प्रावधान ऐसे हैं जिनके जरिए आप सलाखों के पीछे होंगे। वैसे श्रेया सिंघल की याचिका पर न्यायालय का कहना था कि उन्हें आश्चर्य है कि अब तक इस धारा को किसी और ने चुनौती क्यों नहीं दी? इस संबंध में श्रेया का कहना है, ‘मैं एक विद्यार्थी हूं। इसलिए अपनी भावनाएं बताना चाहती हूं। अपने विचारों को व्यक्त करना रोजमर्रा का ही काम है। अगर विचारों पर रोक लगती रही तो हमारा समाज मूक हो जाएगा।’ नवम्बर 2012 में याचिका दायर करने वाली श्रेया कानूनी खानदान से आती हैं। उनके दादा एचआर गोखले कानून मंत्री रह चुके हैं। दादी सुनंदा भंडारे जस्टिस तो मां मनाली सिंघल उच्चतम न्यायालय में वकील हैं। शिक्षा पूरी करने के बाद श्रेया को भी वकील बनना है, जिसकी बानगी उन्होंने इस याचिका के जरिए पेश कर दी है।
मोदी सरकार अब भले ही न्यायालय के फैसले का सम्मान कर रही हो। बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने की बात कह रही हो। सोशल मीडिया पर असहमतियों पर लगाम न कसने के पक्ष में राग अलाप रही हो। लेकिन न्यायालय में वह धारा 66 (ए) की संवैधानिक वैधता का बचाव कर रही थी। वह कह रही थी कि इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रक्रियाएं तय की जा सकती हैं कि सवालों के घेरे में आए कानून का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा। वह खुद भी प्रावधान का दुरुपयोग नहीं करेगी। मगर सरकार की इन बातों को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि ‘सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन धारा 66 (ए) सदा बनी रहेगी। मौजूदा सरकार अपनी उत्तरवर्ती सरकार के बारे में शपथ पत्र नहीं दे सकती कि वे उसका दुरुपयोग नहीं करेंगे।’ मजेदार बात यह है कि जब डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-एक सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में संशोधन कर इस धारा को जोड़ा था तब भाजपा उसकी जमकर मुखालफत कर रही थी। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी भी इस धारा के खिलाफ मुखर थे। लेकिन सत्ता में आते ही वही भाजपा और उसके नेता मोदी उक्त धारा के बचाव में मुस्तैदी से खड़े हो गए। मोदी सरकार की दलीलों को खारिज करते हुए न्यायालय ने फैसला दिया है। इससे यह पता चलता है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भाजपा का रवैया कैसा है?
इस मामले में कांग्रेस भी अलग नहीं है। क्षेत्रीय दलों की बात ही क्या की जाए, जहां सबसे अधिक इसका दुरुपयोग हो रहा था। एक कहावत है कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस।’ एक तरह से धारा 66 (ए) नेताओं और पुलिस के हाथ की लाठी बनी थी। कानून में इसके जुड़ते ही नेता लपक पड़े। वह अपने खिलाफ लिखे गए हर एक शब्द पर काबू पाने के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे। इसीलिए लेखक कंवल भारती ने जब रेत माफिया पर नकेल कसने वाली आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को निलंबित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की तो पुलिस ने उन्हें बनियान और पायजामे में ही घर से उठा लिया। जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा व उनके पड़ोसी सुब्रत सेन गुप्ता को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कार्टून को प्रसारित करने पर धर लिया गया।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संसद और राष्ट्रीय प्रतीकों का मजाक बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उन्होंने यह सामग्री अपनी वेबसाइट व फेसबुक पेज पर शेयर की थी। प्रताड़ना और गिरफ्तारी के मामले बढ़ने व कुछ शिकायतें पहुंचने पर उच्चतम न्यायालय ने 16 मई 2013 को एक परामर्श जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आपत्तिजनक टिप्पणियां पोस्ट करने के आरोपी किसी व्यक्ति को पुलिस आइजी अथवा डीसीपी जैसे सीनियर अफसरों से अनुमति लिए बिना गिरफ्तार नहीं कर सकती। लेकिन ऊपर गिनाए गए अधिकांश मामलों में पुलिस ने यह किया ही नहीं। एक तरह से उसने उच्चतम न्यायालय की अवमानना की। किसी भी बिन्दु को लेकर आलोचना एवं राजनीतिक असहमति को साइवर अपराध बताकर उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र से लेकर अनेक राज्यों में लोगों को गिरफ्तार किया गया।
इन राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रही हैं। यानी अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सभी दलों का रवैया कमोबेश एक जैसा रहा है। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि अगर धारा 66 (ए) कायम रहती तो यह सिलसिला जारी रहता। न्यायालय के फैसले पर इसलिए भी गौर करना आवश्यक है कि कुछ दिनों से ऐसा लग रहा था कि वह क्या देखेंगे? क्या कहेंगे? कहां जा पाएंगे और क्या करेंगे, इस पर सरकारों अथवा उनके गिरोहों द्वारा फैसला लिया जा रहा है। इसके लिए उदाहरण के तौर पर प्रिया पिल्लई और निर्भया कांड पर बने वृत्तचित्र ‘इंडियाज डाटर’ नामक हालिया घटनाएं हमारे सामने हैं। इसी के साथ लेखक पेरुमल मुरुगन जैसे अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं।
मोदी सरकार की दलीलों पर उच्चतम न्यायालय का कहना था कि जो बात किसी को आपत्तिजनक या आक्रामक लग सकती है, वह किसी दूसरे को कहने लायक लग सकती है। उसे पसंद आ सकती है। अगर महज चिढ़ाने या आहत करने के आरोप में शिकंजा कसा जाएगा तो असहमति का इजहार करना असंभव हो जाएगा। ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब नहीं रह जाएगा। असल में इक्कीसवीं सदी में सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के एक बड़े माध्यम के रूप में उभर रहा है। कुछ हद तक ही सही उससे सिविल सोसाइटी भी जुड़ रही है। लोकतांत्रिक आंदोलन मजबूत हो रहे हैं। इसने असहमति के स्वर को मजबूत किया है। इससे राजनीतिक दलों पर दबाव बढ़ रहा है। यही वजह है कि वह इससे डर रहे हैं।
सोशल मीडिया का एक दूसरा पहलू यह भी है कि उस पर गलत चीजें भी आ रही हैं। एक ऐसा तबका भी है जो उसका दुरुपयोग कर रहा है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों को लिया जा सकता है, जिसमें उक्त तबके ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए दंगों को भड़काने का काम किया था। इसी तरह पिछले सालों में लखनऊ में हुए दंगों अथवा दिल्ली के त्रिलोकपुरी और बवाना में होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा में भी इसका गलत इस्तेमाल किया गया। दीमापुर रेप कांड की फोटो तक वायरल कर दी गईं। सोशल मीडिया के जरिए चरित्र हनन करने वाली तथाकथित प्रगतिशील जमात ने खुर्शीद अनवर जैसे स्कालर हमसे छीन लिए। इस तरह अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में गलत बयानी करने, अफवाह फैलाने और चरित्र हनन करने का काम भी कुछ तत्वों की ओर से किया जाता रहा है।
इन घटनाओं को गिनाने का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि हम सोशल मीडिया पर नियंत्रण की पैरवी कर रहे हैं लेकिन आत्म नियंत्रण तो करना ही होगा। असल में हिन्दुस्तान के ढांचे में लोगों को अधिकार और सीमाएं मिली हैं। लोग अधिकार मिलते ही चौड़े होने लगते हैं। वह सीमाएं भूल जाते हैं। लेकिन सीमाएं भूलना खतरे से खाली नहीं है। उन लोगों के लिए खासकर जो खुर्शीद अनवर के मामले की तरह बंद कमरे में किसी के भी चरित्र के बारे में कुछ भी लिखने में संकोच नहीं करते हैं। ऐसे लोगों के लिए कानून की जानकारी न होना महज बचाव नहीं है। ध्यान रखिए विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी असीमित नहीं है। सब कुछ कानून और संविधान के दायरे में है। इसलिए कुछ भी लिखने से पहले दिमाग पर जोर डाल लेना बेहतर है। लिखिए अवश्य, पर जोखिम को समझते हुए।